Monday, April 2, 2012
कुछ को कड़वी बातों में घोल के बाहर फेंका
कुछ को यारों के संग चंद शामों में डुबो डाला
कुछ जो मीठे से थे ,छोड़ने को मन ना माना
सो उन्हें भी समेट कर उस ऊपर वाली दराज़ में डाल दिया
किसी और को न मिले ,खुद भी पहुँचने में कोफ़्त सी हो जहाँ
बड़े ही जिद्दी से थे कुछ ..जाते ही न थे
दिनों तक रगड़ रगड़ दर-ओ-दीवार घिस डाले
ज़माने बदले , मंज़र बदला , शहर बदले
नयी गलियाँ , नए लोग ,नयी चीज़ें सारी
सालों में वक़्त की परतों से झाँक भी न पाई वो
यूँ मर-सी गयी थी
कभी धीमे-से बुझती साँसों-सी आवाज़ भी आती उसकी
तो मैंने तवज्जोह न देना सीख लिया
और कभी शोर ही इतना , कि सुनता ही कौन
कोने कोने से ज़बरन निकाल तेरी हर याद
जब लगा खुद से जीत चुका मैं
एक दिन यूँ ही आँखें बंद करते ही
मुस्कुराती हुई ज़हन के परदे पे
आ के कहती है.... "बस ...हो गया ?"
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